नीलांजन मुखोपाध्याय
गुजरात में अचानक विजय रूपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के फैसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्पष्ट छाप दिखती है। मोदी 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद उन्होंने पहले राज्य की सरकार चलाई और अब देश की सरकार चला रहे हैं। इस दौरान बीजेपी में कई रणनीतिक फैसले उनके कहने पर हुए। ऐसा नहीं कि इन फैसलों पर अमल करने से पहले पार्टी में चर्चा नहीं होती, लेकिन यह भी सच है कि एकाध मामलों को छोड़ दें तो ज्यादातर में मोदी ही आखिरी फैसला करते हैं। गुजरात में भी यही हुआ, लेकिन रूपाणी को हटाकर पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयोग सफल होता है या नहीं, यह कई बातों से तय होगा। इस पर जहां विपक्षी दलों की चुनौतियों का असर होगा, वहीं बीजेपी के अंदर से उठने वाले विरोध का भी प्रभाव पड़ेगा।
बचाव के उपाय
गुजरात के इस मामले को अलग-थलग करके देखना ठीक नहीं होगा। रूपाणी को हटाकर पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कई ऐसे कदमों की कड़ी है, जिन्हें हाल में प्रधानमंत्री ने शुरू किया है। इससे पहले उत्तराखंड और कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदले गए। केंद्र सरकार में कई नए मंत्री बनाए गए। कुछ को बाहर भी किया गया। इनका मकसद इस साल की शुरुआत में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान लचर व्यवस्था से उपजी नाराजगी को दूर करना था। केंद्रीय मंत्रिपरिषद में बदलाव के जरिये लोगों को संदेश दिया गया कि दोषियों को सरकार ने सजा दे दी है। स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को इसीलिए हटाया गया। इस बीच, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता विपक्ष के दूसरे नेताओं से ऊपर बनी हुई है, लेकिन मोदी को इसका अहसास भी होगा कि लोगों के बीच उनकी साख पहले जैसी नहीं रही। सच यह भी है कि उनके खिलाफ गुस्सा उतना नहीं है, जितना कोरोना की दूसरी लहर के वक्त था। इसके बावजूद प्रधानमंत्री को पता होगा कि शायद जनता को अभी जो आर्थिक परेशानियां हो रही हैं, उसकी वजह से उनके अंदर सरकार को लेकर दबी हुई ‘नाराजगी’ हो सकती है। मोदी यह भी जानते हैं कि यह सेंटिमेंट आगे बढ़ सकता है। इसलिए बचाव के उपाय करने जरूरी हैं।
2014 लोकसभा चुनाव में जब मोदी ने बीजेपी को बहुमत दिलाया, तब कहा गया कि उन्होंने भारतीय राजनीति में जातिगत पहचान को अप्रासंगिक बना दिया है। इसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में बीजेपी ने जीत दर्ज की। मोदी ने तब इन राज्यों में मुख्यमंत्री पद के लिए कम जाने-माने चेहरों को चुना। वह भी उन जातियों से, जो राज्य की राजनीति में दबदबा नहीं रखती थीं। इससे यह संदेश गया कि मोदी एक ‘नई’ राजनीति और चुनावी परंपरा शुरू कर रहे हैं। यह संदेश आरएसएस की एक पुरानी सोच पर आधारित था- एक नेता का अनुसरण करो। साथ ही उन्होंने विकास की राजनीति का विचार पेश किया।
जुलाई 2021 में जब केंद्रीय मंत्रिपरिषद में बदलाव हुआ तो लगा कि वह परंपरा पीछे छूट गई। इस बदलाव से जो नई टीम बनी, उसमें 27 ओबीसी और 12 दलित मंत्री थे। तब इसका हवाला देते हुए मोदी को ओबीसी और दलितों का नया मसीहा बताया गया। इस घटना को दो महीने ही गुजरे थे कि गुजरात में भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। इससे पता चलता है कि बीजेपी अब गुजरात की राजनीति में दबदबा रखने वाले पटेलों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती। जातीय राजनीति पर लौटने का मतलब यह भी है कि पार्टी को ‘नई जातिरहित’ राजनीति पर पहले की तरह भरोसा नहीं रहा, जिसकी शुरुआत मोदी ने की थी। वहीं, जिस तरह से गुजरात में बीजेपी ने अलग-अलग धड़ों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है, उससे पता चलता है कि अंदरखाने नेता विरोध जताने लगे हैं। पार्टी पहले किसी व्यक्ति या किसी धड़े की मांगों पर ध्यान नहीं देती थी। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता सब पर भारी पड़ती थी क्योंकि चुनावों में उन्हीं के दम पर जीत मिल रही थी।
इधर, बीजेपी के केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के बीच हर राज्य में पहले जैसा तालमेल नहीं दिख रहा। 2014 में पार्टी के अंदर मोदी ने जिस ढांचे को चुना, वह वाजपेयी-आडवाणी युग के संघीय ढांचे से बिल्कुल अलग था। पहले राज्यों में नेताओं को उभरने का मौका दिया जाता था। उसे अच्छा माना जाता था। इसी नीति के कारण मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में उभार हुआ, लेकिन 2014 के बाद बीजेपी में हाई कमान कल्चर का दबदबा बढ़ा। अजीब बात है कि यह नेहरू के बाद के कांग्रेस युग की याद दिलाता है। इस दौर में राजस्थान में वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान बने तो रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत कम हो गई। मोदी ने उसी अंदाज में नए मुख्यमंत्री चुने, जैसे इंदिरा गांधी चुनती थीं। उन लोगों को राज्यों में शीर्ष पद पर बिठाया गया, जिनका मामूली जनाधार था और जो केंद्रीय नेतृत्व के सामने कोई चुनौती पेश नहीं कर सकते थे।
संघ के समीकरण
इसमें 2017 में एक बदलाव आया, जब योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया, जबकि वह इस पद के उम्मीदवार तक नहीं थे। इसमें संघ परिवार के अंदर के राजनीतिक समीकरणों की भूमिका थी। यह बात और है कि 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद इससे मोदी को फायदा ही हुआ। इसमें दिक्कत यह आई कि दूसरों की तुलना में आदित्यनाथ स्वायत्त मुख्यमंत्री साबित हुए। यह बात पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को पसंद नहीं आई। असम में भी ‘निचले स्तर से दबाव’ के कारण हिमंत बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। यहां भी मोदी का राज्यों के लिए पिछला मॉडल नहीं चला। हालांकि, अब गुजरात में जिस तरह से मुख्यमंत्री को बदला गया है, उससे संकेत मिलता है कि प्रदेश स्तर पर मोदी की पकड़ कमजोर नहीं हुई है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं