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पवन के वर्मा

मान लेते हैं कि आपको वैसे लोगों की मदद करनी है, जो किसी संगठन या समूह से होने का दावा करते हैं। वे आपसे अलग आर्थिक, सामाजिक हैसियत रखते हैं। आपसे कम पढ़े-लिखे हैं। तो आप मदद करने से पहले यह नहीं जानना चाहेंगे कि उस समूह में किसे सबसे अधिक सपोर्ट की जरूरत है? या पहले जो मदद आपने की थी, उसका किस तरह से इस्तेमाल हुआ? और आप जो मदद दे रहे हैं, वह कैसे उन लोगों तक पहुंच रही है? ईमानदारी का तकाजा तो यही है कि आप ये सवाल पूछें।

मुश्किल नहीं यह काम

यही बात जाति जनगणना पर भी लागू होती है। 1992 में मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू हुई। इस रिपोर्ट के आधार पर एक कानून बना, जिससे सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला। इसी कानून के आधार पर साल 2006 से इस वर्ग के लोगों को केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में भी रिजर्वेशन दिया गया। मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति यानी एससी-एसटी को 23 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ था। इस रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी के लिए अलग से 27 प्रतिशत रिजर्वेशन की व्यवस्था की गई।

अब अगर ओबीसी आरक्षण देश का कानून है तो क्या सरकार को इस मामले में वही सवाल नहीं पूछना चाहिए, जो कोई व्यक्ति किसी समूह या संगठन की मदद करने से पहले पूछता है? अगर यह सवाल पूछा जाए तो आपका जवाब यही होगा कि हां, ऐसा करना चाहिए। इसलिए हर 10 साल में जाति जनगणना होनी ही चाहिए। इससे ओबीसी की संख्या पता चलेगी। इस वर्ग में अलग-अलग जातियों की आर्थिक हैसियत क्या है, कैसी शिक्षा मिली है और दूसरी डेमोग्राफिक जानकारियां भी मिलेंगी। जाति जनगणना से पता चलेगा कि कहीं आरक्षण का लाभ कुछ ओबीसी जातियों को तो नहीं मिल रहा है? और कौन सी जातियां हैं, जिन्हें इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है? एससी-एसटी के बारे में इस तरह की जानकारी मिलने से सरकार को नीतियों में बदलाव करने का आधार मिला। नीतियां बदलकर कोशिश की गई कि दोनों ही समूहों में अलग-अलग जातियों को बराबरी का लाभ मिल सके।

इसीलिए पिछड़ा वर्ग आयोग ने जाति जनगणना की सिफारिश की और सामाजिक न्याय मंत्रालय की संसदीय समिति ने इसे माना। फिर भी बीजेपी सरकार इसका विरोध कर रही है या कम से कम उसने अपने इरादे नहीं बताए हैं। ओबीसी जनगणना की मांग को लेकर बिहार से एक डेलीगेशन हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला। इस डेलीगेशन में नीतीश कुमार और उनके राजनीतिक विरोधी तेजस्वी यादव दोनों ही शामिल थे। हमें बताया गया कि प्रधानमंत्री इस मांग पर सोच-विचार कर रहे हैं, लेकिन संबंधित मंत्री ने संसद में दो टूक कहा कि सरकार ऐसी जनगणना नहीं कराएगी।

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ओबीसी जनगणना की मांग जायज है, फिर बीजेपी इसके खिलाफ क्यों है? इसके पक्ष में एक तर्क यह दिया जा सकता है कि जाति जनगणना का काम बहुत मुश्किल है, लेकिन इस दलील में दम नहीं। जब एससी-एसटी की जनगणना की जा सकती है तो ओबीसी की क्यों नहीं! हद से हद इसके लिए जनगणना से जुड़े सवालों में एक और कॉलम जोड़ना होगा। जाति जनगणना के विरोध में यह तर्क भी दिया जाता है कि इससे सामाजिक तनाव बढ़ेगा। यह भी खोखली बात है। डॉ भीमराव आंबेडकर ने ‘जातियों को खत्म’ करने की ख्वाहिश का इजहार किया था, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा था कि जातियों का वजूद ही नहीं है।

बेशक, आंबेडकर के मन में इसे लेकर डर था। उन्होंने 1947 में कहा था कि जाति जनगणना में ‘एससी को कॉमन विक्टिम बनाया जा सकता है। दूसरे समुदायों की लालच की वजह से ऐसा हो सकता है। आखिर जनगणना की प्रक्रिया पर उनका नियंत्रण होगा और वे लालच के कारण इसके नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं।’ आंबेडकर के मन में जनगणना के तौर तरीकों को लेकर संदेह था, जिसे आज ईमानदार जनगणना करके बड़ी आसानी से दूर किया जा सकता है।

इसके खिलाफ बीजेपी की दूसरी दलील वैचारिक है। आरएसएस अरसे से ‘हिंदुत्व पहचान’ की बात करता आया है, जिसमें जातियों की कोई जगह नहीं होगी। वह इस तरह से हिंदुओं को एकजुट करना चाहता है। एक लक्ष्य के रूप में इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन भारत की सचाई कुछ और ही है। इस सचाई को बीजेपी-आरएसएस के नेता बखूबी समझते हैं, तभी तो चुनावों में वे जातीय समीकरणों का अपने हक में इस्तेमाल करते आए हैं।

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तीसरा कारण इसी चुनावी चक्कर से जुड़ा है। बीजेपी ने हाल में ओबीसी को गोलबंद करने की कोशिश की है। इस वर्ग से 44 प्रतिशत वोट उसे मिले हैं, लेकिन चुनावी कामयाबी के लिए वह काफी हद तक सवर्णों के भरोसे है। अगड़ी जातियों का 60 प्रतिशत वोट उसे मिलता है। इसलिए बीजेपी ओबीसी वोट तो चाहती है, लेकिन अगड़ी जातियों का समर्थन गंवाए बिना। अब दिक्कत यह है कि अगड़ी जातियां ओबीसी को और आरक्षण देने का विरोध करेंगी, भले ही जाति जनगणना से उसका आधार बने। वे पहले भी ऐसा विरोध कर चुकी हैं।

अच्छी नीतियां बनेंगी

क्या देश की जमीनी हकीकत और अगड़ी जातियों की सोच के बीच कोई मेल है? सचाई तो यह है कि देश की कुल आबादी में अगड़ी जातियां 20 प्रतिशत हैं, लेकिन पावर और प्रिविलेज में उनकी हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है। जाति जनगणना से उनके इस दबदबे को चुनौती मिल सकती है और यह ठीक ही होगा। आखिरी जाति जनगणना सन 1931 में हुई थी। ऐसी जनगणना फिर से होती है तो सरकार को सामाजिक योजनाओं से बेहतर नतीजे हासिल करने में मदद मिलेगी। इसी कारण से दूसरे देशों में भी जनगणना की जाती है। अमेरिका में नस्लीय आधार पर ऐसी मदद दी जाती है। ब्रिटेन में प्रवासी कहां से आए हैं, इस आधार पर सरकार से उन्हें हेल्प मिलती है। भारत में सामाजिक गैर-बराबरी बहुत ज्यादा है, जिसे दूर करने के लिए जाति जनगणना की जरूरत है। इसका वक्त आ गया है और यह काम ईमानदारी से किया जाना चाहिए।

(लेखक पूर्व राजनयिक हैं)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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