रमेश जोशी
भारतीय व्यापारी रोम साम्राज्य के दौर में भी सागर होकर यात्राएं करते थे। चीन से भी बौद्ध धर्म के कारण वैचारिक आदान-प्रदान रहा। हम गिरमिटिया मजदूरों की भी दर्दनाक और साहसी कथा जानते हैं, लेकिन 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में धर्म प्रचारकों और शिक्षा के लिए अमेरिका जाना एक नए तरह के संपर्कों का अध्याय खोलता है। इनमें सबसे अद्भुत था वहां अपने लिए एक बेहतर भविष्य तलाशने गए उन गरीब लोगों का, जिनमें अधिकतर पंजाब के भूमिहीन और गरीब किसान थे। इनमें से कई लोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ‘योद्धा’ बने। ये गदर पार्टी के योद्धा थे।
हुआ यूं कि 1897 में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक जयंती मनाई गई। उसमें भाग लेने के लिए कुछ सिख-पंजाबी सैनिकों को चुना गया। समारोह के बाद उन्हें ब्रिटिश उपनिवेश कनाडा की सैर भी कराई गई। कनाडा में आज भी लोग कम और जमीन बहुत ज्यादा है। समारोह से लौटे बहुत से लोगों ने सोचा कि वे भी ब्रिटिश प्रजा हैं और उन्हें कनाडा में बसकर अपना भाग्य संवारने का अधिकार है। इसी सोच के तहत शंघाई, हांगकांग की तरफ से, जहां सैनिक के रूप में भारतीयों का आना-जाना हुआ था, अमेरिका जाने की जुगत शुरू हुई। अमेरिका से कनाडा और उत्तरी अमेरिका का पश्चिमी तट निकट पड़ता था।
1905 में कनाडा में कोई 100 भारतीय रहे होंगे। 1907 में दो हजार और 1908 में ढाई हजार हो गए। बाद में कनाडा सरकार की पाबंदियों के कारण उन्होंने अमेरिका के कनाडा से लगे राज्यों ऑरेगोन, वॉशिंग्टन और कैलिफोर्निया की तरफ पलायन शुरू किया। यहां भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा। इसी काल में चीन, जापान के श्रमिक भी आना शुरू हो चुके थे और अश्वेत गुलाम तो पहले से थे ही। उस वक्त ईसाई धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म को मानने वालों को वहां असभ्य माना जाता था। दूसरी ओर, वहां पहले से जो मजदूर काम कर रहे थे, उन्हें लगा कि भारतीय उनकी नौकरी छीनने आए हैं।
ऐसे में सोहन सिंह भकना के दो अनुभव देखें- कनाडा से आए प्रोफेसर तेजासिंह को लेकर जब वे एक होटल में खाना खाने गए तो वहां कुछ विद्यार्थियों ने उन्हें कई देशों के झंडे दिखाकर पूछा- तुम्हारे देश का झंडा कौन सा है? जब उन्होंने ब्रिटेन के झंडे यूनियन जैक पर हाथ रखा तो वे उन्हें ‘इंडियन स्लेव’ कहकर चिढ़ाने लगे। इसी तरह जब भकना अपने एक दोस्त के साथ एक मिल में काम मांगने गए तो इन्हें डांटते हुए वहां के सुपरिन्टेंडेंट ने कहा, ‘काम तो है लेकिन तुम्हारे लिए नहीं। तुम आदमी हो या भेड़ें? ये लो बंदूकें। जाओ और अपने देश को आजाद कराओ। तब मैं तुम्हारा स्वागत करूंगा।’
ऐसी ही अपमानजनक परिस्थितियों की आग वहां जाने वाले भारतीयों में जमा होती रही, जो 21 अप्रैल 1913 को ‘गदर पार्टी’ और उसके ‘गदर’ अखबार के रूप में साकार हुई। इसी दौर में कई भारतीय विचारक और क्रांतिकारी अमेरिका में इकट्ठा हो चुके थे। इनमें लाला हरदयाल प्रमुख थे, जो ऑक्सफर्ड में पढ़ते हुए अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण वापस भारत भेज दिए गए थे और अब भाई परमानन्द की सलाह पर अमेरिका के बर्कले के पास स्टेनफर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए पहुंच गए थे। कुछ स्थानीय संगठन भी बन चुके थे। सभी की अंतिम मीटिंग 21 अप्रैल 1913 को हुई, जिसमें भाग लेने वालों में लाला हरदयाल, सोहन सिंह भकना, करतार सिंह साराभा आदि प्रमुख थे।
तय हुआ कि संगठन का नाम ‘हिंदी असोसिएशन ऑफ पैसिफिक कोस्ट’ होगा, जिसका मुख्यालय सैन-फ्रांसिस्को होगा। उर्दू पंजाबी में एक पत्र निकाला जाएगा, जिसका नाम 1857 के गदर की स्मृति में ‘गदर’ होगा, जो बाद में अन्य भारतीय भाषाओं में भी निकाला जा सकता है। हर सदस्य प्रति माह एक डॉलर चंदा देगा। पार्टी हर प्रकार के धार्मिक रीति रिवाज से परे होगी। पार्टी के किसी कर्मचारी को कोई तनख्वाह नहीं दी जाएगी। सबके लिए साझे प्रबंध के तहत भोजन, कपड़ा उपलब्ध होगा। भारतीय वैदिक काल की सच्ची समानता पर आधारित पारिवारिक व्यवस्था। एक आदर्श समाज का स्वप्न।
1 नवंबर 1913 को बर्कले की मुख्य सड़क पर बने ‘शैटेक होटल’ के सभागार में ‘गदर’ के पहले अंक का विमोचन हुआ। इस मीटिंग में लाला हरदयाल ने बताया कि यूरोप में जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उनके अनुसार विश्व युद्ध तय है। ऐसे में इरादा था दुनिया में सभी जगह फैले भारतीयों को संगठित करके युद्ध में उलझे ब्रिटिश शासन को उलट देना। विश्वास था कि ऐसे में भारतवासियों का भी पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन हुआ क्या? यह एक बहुत दर्दनाक और शर्मनाक इतिहास है, जिसके बारे में न तो स्वतंत्र भारत की सरकारों ने कोई रुचि दिखाई और न ही तत्कालीन समाज ने।
27-28 सितंबर 1914 को कनाडा में मर्मांतक यातनाओं से गुजरता हुआ जहाज ‘कमागाटामारू’ जब इन बलिदानी ‘गदरियों’ को लेकर कोलकाता के बजबज बंदरगाह पर लगा तो कनाडा की सूचना के आधार पर उनका स्वागत करने के लिए बंगाल, पंजाब पुलिस और ब्रिटिश अधिकारियों के साथ सेना के जवान उपस्थित थे। इन आजादी के दीवानों में से कुछ मारे गए, कुछ को जेल में डाल दिया गया और कुछ को अपने घरों में नजरबंद रहने के लिए पंजाब भेज दिया गया।
एक दीया प्रज्ज्वलित होने से पहले ही बुझा दिया गया। जिन भारतीयों के सहयोग के विश्वास के बल पर वे, जो अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अमेरिका गए थे और अब सब कुछ वहीं अमेरिका में छोड़कर देश की आजादी के लिए प्राण हथेली पर लेकर कूद पड़े थे, छले गए। इनमें अधिकांश पंजाबी और पंजाबी में भी सिख थे। दुर्भाग्य देखिए, 27 फरवरी 1915 को गवर्नमेंट हाउस, लाहौर में एक मीटिंग हुई, जिसमें अंग्रेजों के पिट्ठू सरदारों ने इन विद्रोहियों को सख्ती से दबाने का प्रस्ताव पास किया। आत्मप्रशंसा के इस दौर में कौन इन वीरों की सोच, दर्शन और बलिदान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाएगा?
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं