कौन हैं चकमा और हाजोंग
उत्तर-पूर्व में एक बार फिर नागरिकता संशोधन कानून को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। ताजा विवाद केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजु के बयान के बाद शुरू हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि भले अरुणाचल प्रदेश में नागरिकता संशोधन अधिनियम प्रभावी नहीं है लेकिन वहां किसी विदेशी जनजाति को मूल निवासी का दर्जा नहीं मिलेगा। उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन माना गया कि उन्होंने यह बात चकमा और हाजोंग के संदर्भ में कही है।
विवाद समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं
इस विवाद को समझने के लिए हमें कई दशक पीछे जाना होगा जब इस इलाके में दो जनजातियां शरणार्थी के रूप में बसने आईं। चकमा बौद्ध हैं और हाजोंग हिंदू। दोनों 60 के दशक में बांग्लादेश (तब पाकिस्तान का हिस्सा) से निर्वासित होकर आए थे। वे यहां बस तो गए लेकिन तब उन्हें कोई नागरिक अधिकार नहीं मिला। बाद के सालों में इनकी तादाद बढ़ी तो इनके लिए अधिकार की भी मांग होने लगी। धीरे-धीरे यह मांग सियासत का हिस्सा बनने लगी। स्थानीय जनजातियों ने इस मांग का विरोध 80 के दशक से ही शुरू कर दिया था। अरुणाचल प्रदेश में कई संगठन चकमा और हाजोंग को नागरिकता देने का विरोध कर रहे हैं। जिस तरह असम में वहां के मूल निवासियों और बाहरियों के बीच संघर्ष सालों से है उसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी लंबे समय से यह मुद्दा बना हुआ है। इन्हें नागरिकता देने की हिमायत करने वालों का तर्क है कि अरुणाचल प्रदेश में 60 के दशक से लेकर अब तक इन दो जनजातियों के लगभग 15 हजार लोगों को बसाया गया। इन बसाए गए लोगों में अब महज पांच हजार के करीब बचे हैं। इनके अलावा जो भी हैं, उनमें अधिकतर भारत में ही जन्मे हैं। इनकी आबादी पचास हजार के करीब है। 2017 में भी केंद्र सरकार ने कहा है कि इन्हें नागरिकता तो दी जा सकती है लेकिन उत्तर-पूर्व का मूल निवासी नहीं माना जाएगा। केंद्र सरकार के लिए इस मामले में उलझन इस बात को लेकर भी है कि इन दोनों समुदायों को नागरिकता देने की पैरवी करने वाला संगठन बीजेपी के पक्ष में वोट करता रहा है और 2019 आम चुनाव में उसे एक सीट पर मिली जीत में इस समुदाय का भी योगदान था।
आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास
पंजाब के कांग्रेस प्रभारी हरीश रावत पंजाब में सीएम अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच झगड़ा सुलझाने गए थे लेकिन सिद्धू और चार कार्यकारी अध्यक्षों को ‘पंज प्यारे’ की संज्ञा देकर नया विवाद खड़ा कर आए। ‘पंज प्यारे’ का धार्मिक महत्व है, उनकी तुलना सियासी नेताओं से करने पर विवाद खड़ा होना स्वाभाविक था। आग में घी का काम किया सिर पर खड़े पांच राज्यों के चुनाव ने। हरीश रावत की इस टिप्पणी ने कांग्रेस के पसीने छुड़ा दिए। अकाली दल, बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने इसे मुद्दा बना दिया। हरीश रावत ने समझदारी यह दिखाई कि माफी मांगने में देर नहीं की। उन्होने कहा, ‘मैं इतिहास का विद्यार्थी हूं। पंज प्यारों के अग्रणी स्थान की किसी और से तुलना नहीं की जा सकती है। मुझसे ये गलती हुई है, मैं लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं।’ उन्होंने गुरुद्वारे पहुंच कर प्रायश्चित किया। वहां जूते साफ किए और झाड़ू लगाई।
क्या होता है ‘पंज-प्यारे’ का मतलब
दरअसल जब गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी तब उन्होंने ऐसे पांच लोगों को चुना था जो पंथ के लिए अपन सर्वस्व न्योछावर कर सकें। 1699 में गुरु गोविंद सिंह जी ने बैशाखी के दिन आनंदपुर साहिब में जुटे संगत से धर्म और मूल्यों की रक्षा के लिए सर की मांग की। उनकी मांग को पूरा करने के लिए पांच लोग सामने आए। बाद में अमृत छक कर ये पंज प्यारे हो गए। सिख धर्म में पंज प्यारे का बेहद अहम और सम्मानित स्थान है। हरीश रावत का बयान कांग्रेस को सिर्फ पंजाब में ही नुकसान नहीं पहुंचा सकता है, यह उसे उत्तराखंड में भी भारी पड़ सकता है। स्वाभाविक ही कांग्रेस इस मामले को जल्द से जल्द खत्म कराने में लग गई है। खुद रावत भी पंजाब से लेकर उत्तराखंड तक सिखों के बीच संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि उनसे भूल हो गई। पंजाब में सिख तो निर्णायक हैं ही उत्तराखंड में भी इनकी तादाद लगभग चार फीसदी है। नजदीकी मुकाबलों में ये चार फीसदी वोट अहम भूमिका निभाते हैं। देखने वाली बात होगी कि हरीश रावत की माफी से कांग्रेस को कितनी जल्दी सुकून मिल पाता है।