Crime News India


लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व उप-प्रधानमंत्री
मुझे पार्टी अध्यक्ष बनने में बहुत संकोच हो रहा था। पार्टी अध्यक्ष बनने का दायित्व मेरे ऊपर कैसे आया, यह एक रोचक कहानी है। फरवरी 1968 में पं. दीनदयाल उपाध्याय की दुखद मृत्यु के पश्चात अटलजी पार्टी अध्यक्ष बने थे। वह सन 1971 के चुनाव के बाद पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे थे। 1972 के प्रारंभ में अटलजी ने मुझसे कहा, ‘अब आप पार्टी के अध्यक्ष बन जाइए।’ इसका कारण पूछने पर उन्होंने कहा, ‘मैं इस पद पर अपना 4 वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुका हूं। अब समय है कि कोई नया व्यक्ति दायित्व स्वीकार करे।’ मैंने उनसे कहा, ‘अटलजी, मैं किसी जनसभा में भाषण भी नहीं दे सकता हूं। फिर मैं पार्टी अध्यक्ष कैसे हो सकता हूं?’ उन दिनों मैं जनता के बीच बोलने में भी पटु नहीं था और मुझे बोलने में संकोच भी होता था। अटलजी ने जोर देकर कहा, ‘लेकिन अब तो आप संसद में बोलने लगे हैं। फिर यह संकोच कैसा?’

मैंने उनसे कहा, ‘संसद में बोलना एक बात है और हजारों लोगों के सामने भाषण देना अलग बात है। इसके अतिरिक्त पार्टी में कई वरिष्ठ नेता हैं। उनमें से किसी को पार्टी अध्यक्ष बनाया जा सकता है।’ अटलजी ने कहा, ‘दीनदयालजी भी वक्ता नहीं थे, लेकिन लोग उन्हें बहुत ही ध्यान से सुनते थे; क्योंकि उनके शब्दों में गहन चिंतन मौजूद रहता था। इसलिए पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने के लिए बहुत बड़ा वक्ता होना आवश्यक नहीं है।’ मैं इस बात से प्रभावित नहीं हुआ। मैंने कहा, ‘नहीं-नहीं, मैं पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकता। कृपया किसी अन्य व्यक्ति को ढूंढिए।’ उन्होंने कहा, ‘दूसरा व्यक्ति कौन हो सकता है?’ मैंने कहा, ‘राजमाता क्यों नहीं?’ अटलजी मेरे सुझाव से सहमत हो गए और हम दोनों राजमाता को जनसंघ अध्यक्ष बनने के लिए मनाने के उद्देश्य से ग्वालियर गए। वास्तव में उन्हें काफी मनाना पड़ा, किंतु अंततः वह मान गईं।

30 साल, जय श्रीराम से जय श्रीराम तकः क्या आज वाकई बहुत खुश होंगे लालकृष्ण आडवाणी?
‘हां’ के बाद ‘ना’ बनी समस्या
हमने उन्हें धन्यवाद दिया, लेकिन उन्होंने कहा, ‘अपनी अंतिम स्वीकृति के लिए आपको मुझे एक दिन का और समय देना होगा। मैं अपने जीवन में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय दतिया में रहने वाले अपने श्रीगुरुजी की अनुमति और आशीर्वाद के बिना नहीं लेती हूं।’ उसी दिन वह मध्य प्रदेश के उस छोटे से नगर दतिया गईं। किंतु दूसरे दिन वापस लौटकर उन्होंने अप्रिय समाचार सुनाया, ‘मेरे श्रीगुरुजी ने इसकी अनुमति नहीं दी।’ ‘अब हमें क्या करना चाहिए?’ इसके बाद मैं इस कारण से भी अस्वीकार नहीं कर सका कि नानाजी देशमुख, सुंदर सिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे और जगन्नाथ राव जोशी जैसे मुझसे उम्र और अनुभव, दोनों में वरिष्ठ व्यक्ति मेरे नाम पर तुरंत सहमत हो गए। ये सभी संघ के प्रचारक थे और कभी भी सत्ता या पद से प्रेरित नहीं थे। हालांकि जब भी मैं इस बात का स्मरण करता हूं तो इस तथ्य से परेशान हो जाता हूं कि मैत्री और परस्पर आस्था का यह भाव और पार्टी कार्य के प्रति आदर्श और लक्ष्योन्मुखी दृष्टिकोण विगत वर्षों के दौरान कम हो गया।

मैंने सार्वजनिक जीवन में कई राजनेताओं को देखा है, जो ज्योतिष में बहुत विश्वास करते हैं। मैंने बहुत से असली और नकली ज्योतिषियों को भी देखा है, जो राजनेताओं के द्वार पर दस्तक देते रहते हैं। जब जनता सरकार में आपसी झगड़े शुरू हुए तो मैंने महत्वाकांक्षी नेताओं को एक-दूसरे से लड़ाते हुए ज्योतिषियों को देखा। इसलिए, सामान्य तौर पर मैंने स्वयं को भविष्यवक्ताओं से दूर रखा। हालांकि एक ऐसी घटना हुई, जिसने ज्योतिष और ज्योतिषियों के प्रति जो मेरे मन में घोर अविश्वास था, उसे हिलाकर रख दिया। हमारी पार्टी के एक कार्यकर्ता डॉ. वसंत कुमार पंडित बंबई के एक नामी पेशेवर ज्योतिषी थे। 12 जून, 1975 को दो घटनाएं हुईं, जो देश में राजनीति की दिशा को बदलने वाली थीं। पहली गुजरात विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए थे और उसमें कांग्रेस की भारी पराजय हुई थी। दूसरी घटना समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया, जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी घोषित किया। इन दो घटनाओं से, कांग्रेस पार्टी में चिंता की लहर दौड़ गई; जबकि गैर-कांग्रेसी दलों में खुशी का माहौल। जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की माउंट आबू में बैठक बुलाई गई।

25-26 जून 1975 की उस रात की कहानी, जिसके बाद रेडियों पर PM इंदिरा ने कहा- राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है
हम लोग निर्वासित होने वाले हैं
दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा विश्राम करते समय मैंने महाराष्ट्र से कार्यकारिणी के सदस्य डॉ. पंडित से सरसरी तौर पर पूछा, ‘पंडितजी, आपके नक्षत्र क्या कहते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘आडवाणीजी, स्पष्ट रूप से मैं नहीं जानता। मेरे स्वयं के आकलन ने ही मुझे उलझन में डाल रखा है। मैं जो सितारों के संकेत पाता हूं, उससे लगता है कि हम लोग दो वर्षों के लिए निर्वासित होने वाले हैं।’ हैरान होकर मैंने पूछा, ‘इसमें निर्वासन की बात कहां से आ गई पंडितजी? सबकुछ कांग्रेस के प्रतिकूल जा रहा है।’ उन्होंने कहा, ‘आडवाणीजी, मैं भी नहीं समझ रहा हूं, किंतु सितारों के संकेत ऐसे ही हैं।’ जून माह समाप्त होने से पहले ही हमारा निर्वासन शुरू हो गया था- उन्नीस महीनों के जेलवास के रूप में। वर्ष 2005 में अपने कराची प्रवास के दौरान मैं अपने स्कूल गया। स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षकों ने मेरे सम्मान में एक स्वागत-समारोह आयोजित किया।

मुझे कुछ ऐसे लोग जरूर मिले, जो मेरे साथ पढ़े थे और बड़े होकर उसी स्कूल में पादरी और शिक्षक बन गए थे। परंतु इस बार उनमें से एक भी शिक्षक नहीं मिले, जिन्होंने मुझे पढ़ाया था। यह स्वाभाविक ही था। मेरे स्कूल छोड़ने के बाद छह दशक से अधिक बीत चुके थे। सेंट पैट्रिक्स, जो एक इंग्लिश मीडियम स्कूल था, उसमें हमारे पास एक और भाषा सीखने का विकल्प था। कई विद्यार्थियों ने फ्रेंच को चुना, कुछ ने फारसी ली, परंतु मैंने लैटिन को चुना। जीवन भर मुझे इस बात का खेद रहा कि मैंने स्कूल में संस्कृत नहीं सीखी। जब मैं कराची में था तो हिंदी अधिक नहीं जानता था। हिंदी फिल्में देखने के कारण मैं हिंदी समझ लेता था और टूटी-फूटी हिंदी में कुछ बात भी कर लेता था।

(आडवाणी की पुस्तक : ‘मेरा देश मेरा जीवन’ प्रकाशक प्रभात प्रकाशन से साभार)

LK-Advani



Source link

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *