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बृजेश शुक्ल

एक दौर वह भी था, जब संसद और विधानसभाओं की लाइब्रेरी सांसदों और विधायकों से गुलजार रहती थी। जनप्रतिनिधि जनहित के मुद्दों को उठाने के लिए अपनी तैयारियां करते थे। सांसद नीलोत्पल बसु, गुरुदास दासगुप्ता, संघ प्रिय गौतम सहित बड़ी संख्या में ऐसे सांसद थे, जो अपने बड़े से बड़े काम छोड़कर संसद की बैठक में आते थे क्योंकि उनके लिए वही मंदिर था। आज भी ऐसे सांसदों की कमी नहीं है, जो जनता से जुड़े मुद्दों को उठाना चाहते हैं, लेकिन दिन पर दिन होने वाले हंगामे ने उन्हें विवश कर दिया है। इन सतत हंगामों के लिए कौन दोषी है और कौन निर्दोष, यह एक जटिल सवाल है, लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि संसद और विधानसभाओं की बैठकों में हंगामे को ही अपना धर्म मान लिया गया है?

कार्यवाही कम, हंगामा अधिक

वर्ष 2006 में जब तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा टीवी की शुरुआत की थी, तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि यह देश सदन के अंदर सदस्यों का ऐसा आचरण देखेगा, जो लोगों को दुखी भी करेगा और शर्मिंदा भी। लेकिन देश देख रहा है कि संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही कम चलती है और हंगामा अधिक होता है। एक घटना याद आ रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा की बैठक हंगामे के बाद स्थगित हो गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर लगातार नौ बार विधायक चुने जा चुके उदल और समाजवादी नेता और विधायक रवीन्द्र नाथ तिवारी चिंतित मुद्रा में एक कक्ष में बैठे थे। हाथ में उन प्रश्नों का बंडल था, जो उस दिन विधानसभा की बैठक में पूछे जाने थे। जब इन दोनों विधायकों से पूछा कि आप लोग इतने चिंतित क्यों हैं तो रवीन्द्र नाथ तिवारी बोले कि आज कई सवाल लगे हैं, लेकिन अब हंगामा हो गया है। इसलिए कोई भी प्रश्न पूछने का मौका नहीं मिलेगा।

बड़ी संख्या में जनप्रतिनिधि प्रश्नों की तैयारी करते हैं, लेकिन हवा ऐसी बदली कि सदन की बैठकों में उन लोगों का बोलबाला हो गया, जिन्हें न तो संसदीय परंपराओं की जानकारी है, ना जनता के दुख-दर्द से कोई मतलब। सदन के अंदर होने वाला हंगामा अखबारों की हेडलाइन बनता है। चैनलों में भी उन्हीं के करतब छाए रहते हैं। जमीनी मुद्दे किनारे कर दिए गए हैं तो फिर रात-रात भर जाग कर जनहित से जुड़े मुद्दों पर माथापच्ची क्यों हो!

लोकसभा और राज्यसभा में मॉनसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ। सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिकाएं बदलने के साथ उनका रुख भी बदलता रहा है। लगता ही नहीं कि यह वही संसद है, जिसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, इंद्रजीत गुप्त, सोमनाथ चटर्जी, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, चतुरानन मिश्र, मधु दंडवते और लालकृष्ण आडवाणी जैसे विपक्षी दिग्गज लंबी-लंबी बहसों में भाग लेते थे और सत्तापक्ष की ओर से पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, जगजीवन राम, प्रणब मुखर्जी, वसंत साठे, एस बी चह्वाण जैसे दिग्गज चुटीले जवाब भी देते थे।

संसद और विधान मंडलों में हंगामे का सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी को होता है तो वह है जनता। विपक्ष के पास सदन की बैठक ही सबसे बड़ा मारक हथियार है। प्रश्न प्रहर और शून्य प्रहर में उठने वाले मुद्दे तमाम समस्याओं का निदान लेकर आते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित बताते हैं कि वह पहली बार चुनाव जीत कर आए थे और एक गांव में पुलिस अत्याचार का मुद्दा सदन में उठाया था। उसी दिन जब शाम को वह अपने क्षेत्र लौट रहे थे तो देखा कि उस गांव में पुलिस का भारी जमावड़ा है। उन्होंने पूछा तो पुलिस के आईजी ने बताया कि आपने सदन में यह मुद्दा उठा दिया है, इसलिए मुझे आना पड़ा।

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हंगामा भी दो तरह का होता है। एक सदन के अंदर किसी बात को लेकर दो पक्षों में वाद-विवाद बढ़ जाए तो वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक अंग माना जा सकता है। लेकिन जब राजनीतिक दलों के कार्यालयों में बैठकर अपने ही सांसदों और विधायकों से नारे लिखवाए जाएं, बैनर बनवाए जाएं और यह रणनीति बने कि कैसे किस को जवाब देना है तो यह पता चलता है कि हम किन लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर बढ़ रहे हैं ।

संसद की बैठक चलाने की जिम्मेदारी सरकार और विपक्ष दोनों पर है, लेकिन सरकार पर कहीं ज्यादा। दूसरी तरफ विपक्ष को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संसद में अपने मुद्दों के उठाने के अपने अधिकार को हाथ से न जाने दे। इससे तो सत्ता पक्ष को ही लाभ होता है। संसद और विधानसभा में प्रश्न प्रहर में जो प्रश्न आते हैं, उनके उत्तर देने के लिए मंत्रियों को तैयारी करनी पड़ती है। प्रश्न में उठाई गई समस्या को हल करवाना पड़ता है, लेकिन हंगामा होने पर मंत्री अपनी फाइल लेकर मुस्कुराते हुए सदन से बाहर चले जाते हैं और सदस्य ठगे से महसूस करते हैं।

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हंगामा और शोर-शराबा करने वाले कहते हैं कि हंगामा भी तो जनहित के कारण हो रहा है, लेकिन ऐसे लोग शायद भूल रहे हैं कि संसद और विधानसभाएं चर्चा के लिए बनी हैं।

संवाद खत्म न हो

वैसे विशेष परिस्थितियों में सदन में गरमा-गरमी, हंगामा हो जाना और सदस्यों का वेल में जाना लोकतांत्रिक है लेकिन य़ह सीमित समय के लिए और बहुत जरूरी होने पर होना चाहिए। जब हम केवल इसी को अपना हथियार बना लेंगे तो चर्चा और संवाद खत्म हो जाएंगे।

अब समय आ गया है कि एक ऐसी आदर्श रूपरेखा तैयार की जाए, जिसमें असहमति होने पर गुस्सा दिखाने की गुंजाइश हो लेकिन सदन के कामकाज में बाधा डालने और जनता के हितों के ऊपर अपनी राजनीति चमकाने की इजाजत ना हो। वरना लोकतंत्र के ये मंदिर उन लोगों के नाम से जाने जाने लगेंगे, जो हंगामा करते हैं काम नहीं होने देते।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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