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हाइलाइट्स

  • देश में जातियों के अंदर उपजातियां हैं जिससे आरक्षण का मसला पेचीदा हो जाता है
  • ओबीसी के दायरे में आने वाली जातियों के अंदर भी तरह-तरह की उपजातियां हैं
  • जस्टिस रोहिणी आयोग ने उपजातियों को चार वर्गों में विभाजित करने का सुझाव दिया है
  • वहीं, पार्टियां जातिवादी राजनीति चमकाने के लिए जातीय जनगणना की मांग कर रही हैं

नई दिल्ली
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार की 10 पार्टियों ने जाति जनगणना करवाने का मांग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। प्रतिनिधिमंडल में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ओर की छोटी-बड़ी सभी पार्टियों के नेता शामिल थे। पीएम से मुलाकात के बाद राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि जनगणना में जब धर्म का लेखो-जोखा लिया ही जाता है तो एक कॉलम बढ़ाकर जाति का भी विवरण लिया जा सकता है, इसके लिए अलग से खर्च भी नहीं होगा। उनकी दलील है कि अनुसूचित जनजाति (ST) और अनुसूचित जाति (SC) के लिए अलग-अलग कोष्ठक होते ही हैं, तो एक और कॉलम बनाने में क्या हर्ज है। आप भी इस दलील से सहमत हो सकते हैं, लेकिन इससे जाति जनगणना का मकसद पूरा होगा, इस पर संदेह है। ऐसा क्यों? आइए समझते हैं…

बढ़ रही है ओबीसी की जनसंख्या

पता होना चाहिए कि भारत में वर्ष 1931 के बाद से सभी जातीय जनगणना नहीं हुई है। फिर भी जातियों की जनसंख्या का मोटा-मोटा आकलन सरकार के पास होता है। ब्रिटिश राज में 1881 से 1931 तक जातीय जनगणना हुई थी, लेकिन भारत आजाद हुआ तो स्वदेशी सरकार ने इसकी परंपरा खत्म कर दी। हालांकि, जनगणना में एससी-एसटी समूह के लोगों की आबादी का उल्लेख होता है। आंकड़े बताते हैं कि 1971 में एससी-एसटी वर्ग की देश की आबादी में भागीदारी 21.54 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 25.26 प्रतिशत रह गई। इसका कारण यह है कि ये दोनों वर्ग देश में सबसे ज्यादा पिछड़े हैं, इस कारण उनमें अशिक्षा, गरीबी ज्यादा है जो सीधा प्रजनन दर को प्रभावित करते हैं।

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जातीय जनगणना की मांग के पीछे यह है असली मकसद

ध्यान रहे कि जातीय जनगणना की मांग करने वाले नेताओं का कहना है कि एक बार आबादी में किसी जाति की हिस्सेदारी का पता चल जाने पर उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं का खाका खींचने में मदद मिलेगी। इससे विभिन्न मापदंडों पर पिछड़े लोगों का तेजी से विकास हो सकेगा। मतलब साफ है कि जातीय जनगणना का मकसद सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा है। कुछ जातियां खुद को ओबीसी लिस्ट में शामिल करने का आंदोलन चला रही हैं तो वहीं राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आरक्षण के लिए तय की गई 50% की सीमा हटाने की मांग कर रहे हैं।


वर्ग और जाति पर धोखा खा रहे हैं नेता?

इनकी दलील है कि सभी धर्मों की पिछड़ी जातियों के लोग देश की आबादी के 52 प्रतिशत हैं, इसलिए केंद्र सरकार के सभी पदों की 52% नौकरियां ओबीसी समूह के लोगों को दी जाएं। यह मांग करने वाले ही जातीय जनगणना करवाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन, वो शायद यह नहीं समझ पा रहे हैं कि अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिया जा रहै है, अन्य पिछड़ी जातियों को नहीं। इसका सबूत यह है कि एसटी-एसटी में कोई क्रीमि लेयर तय नहीं है जबकि ओबीसी दर्जा प्राप्त जातियों में क्रीम लेयर के लोग आरक्षण नहीं ले सकते हैं। यानी, एससी-एसटी की सभी जातियों का एक-एक व्यक्ति आरक्षण के योग्य है जबकि ओबीसी दर्जे की सभी जातियों के सिर्फ वही लोग आरक्षण ले पाते हैं जो क्रीमि लेयर के दायरे में नहीं आते हैं। ध्यान रहे कि क्रीमि लेयर के निर्धारण के लिए सालाना आमदनी समेत कई अन्य कारकों की परख की जाती है।

बढ़ रही है आरक्षण में ओबीसी की भागीदारी
केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को अभी 21.57 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हासिल है जो उनकी आबादी के अनुपात के लिहाज से बहुत कम है। केंद्रीय मंत्री डॉ. जीतेंद्र सिंह ने 17 जुलाई, 2019 को लोकसभा को लिखित जवाब में बताया था कि 1 जनवरी, 2012 को केंद्र सरकारी की नौकरियों में ओबीसी के 16.55 प्रतिशत लोग थे जो 1 जनवरी, 2016 को 21.57 प्रतिशत हो गए। यानी, साल दर साल आरक्षण में ओबीसी की भागीदारी बढ़ रही है।

जातियों के अंदर उपजातियों का पचड़ा
समस्या यह है कि देश में एक जाति के अंतर्गत कई उपजातियां हैं। यही वजह है कि मोदी सरकार ने 2017 में जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया था। केंद्र सरकार की सूची में 2,633 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। आयोग ने इस वर्ष सरकार को सुझाव दिया था कि इन्हें चार वर्गों में बांटकर इन्हें क्रमशः 2, 6, 9 और 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। इस तरह, ओबीसी के लिए तयशुदा 27 प्रतिशत का आरक्षण उपजातियों के चार वर्गों में बंट जाएगा।

बीजेपी का रानीतिक निशाना
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में दावा किया गया है कि आरक्षण में ओबीसी ग्रुप की दबंग जातियों, मसलन बिहार और यूपी में यादव, से अपेक्षाकृत कमजोर जातियों को तवज्जो देने पर चुनावों में बीजेपी को फायदा हुआ है। 2009 में बीजेपी को ओबीसी का 22% वोट मिला था जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी में अपेक्षाकृत कमजोर तबकों से 47% वोट मिला। वहीं, उत्तर प्रदेश और बिहार में बीजेपी को यादवों का समर्थन घटता दिख रहा है। यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव में यादवों का 14 प्रतिशत वोट मिला था जो 2019 के चुनाव में घटकर 9 प्रतिशत रह गया। वहीं, बिहार में यह क्रमशः 26 प्रतिशत से घटकर 24 प्रतिशत रह गया।

जातीय जनगणना से पूरा होगा मकसद?
ऊपर बताए गए दो तथ्यों- जाति नहीं वर्ग और उपजातियों में वर्गीकरण, से स्पष्ट होता है कि जातीय जनगणना से आरक्षण में ओबीसी को उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। इसके लिए ओबीसी की उपजातियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति का गहराई से जायजा लेना होगा। ऐसा जनगणना में संभव नहीं है। हालांकि, 2011 की सामाजिक-आर्थिक आधार पर जातीय जनगणना में इसकी प्रतिबद्धता जताई गई है। लेकिन, आज तक उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं।

राजनीतिक दलों से भी पूछने होंगे सवाल

यह अलग-अलग आकलनों में साबित हो चुका है कि ओबीसी की आर्थिक-सामाजिक स्थिति इलाकों और राज्यों के आधार पर अलग हो जाती है। ऐसे में जातीय जनगणना के आधार पर ओबीसी के लिए आरक्षण या कल्याणकारी योजनाओं का खाका खींचने की परिकल्पना त्रुटिपूर्ण है। नेताओं में भी जाति के नाम पर अपने राजनीतिक फायदे की चिंता ज्यादा दिखती है। वो पिछड़े वर्ग के उत्थान को लेकर कितने कृतसंकल्पित हैं, इस बारे में विचार करेंगे तो दिल दुखाने वाली कई बातें सामने आएंगी। मसलन, बिहार में 15 साल तक लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की सरकार रही, तो क्या ओबीसी वो सब मिल गया जो मिलना चाहिए था? ऐसे ही प्रश्न देश के अन्य राज्यों और वहां के शासन में रही पार्टियों से भी पूछना काफी प्रासंगिक होगा।

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जातीय जनगणना की मांग और आरक्षण की राजनीति। (सांकेतिक तस्वीर)



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