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सिन्धी साहित्य गद्य और पद्य दोनों में है।

सिन्धी साहित्य का इतिहास

सिंधी साहित्य का आरंभ काव्य से होता है। अंग्रेजी राज्यकाल से पहले यही उस साहित्य का एकमात्र रूप रहा है और आज भी इसकी सत्ता का प्राधान्य है। सिंधी कविता मुख्यत: सूफी फकीरों की कविता है जिसका सबसे बड़ा गुण यह है कि वह सांप्रदायिकता से मुक्त है – किसी प्रकार का कट्टरपन उसमें नहीं है। कोई-कोई कवि तो अपने को “गोपी” और परमात्मा को “कृष्ण” कहकर अपनी भावाभिव्यक्ति करते हैं। वे ईश्वर को पिता और मनुष्य मात्र को अपना भाई मानते हैं। उनका ध्येय है परमात्मा में लीनता, किरण की सूर्य की ओर वापस यात्रा अथवा बिंदु और सिंधु की एकाकारिता जिससे मैं, तू और वह का भेद नहीं रहता। पहले दोहे और सलोक लिखे जाते रहे, ब्रिटिश राज्य से कसीदों, गजलों, मसनवियों और रुबाइयों की प्रधानता होने लगी। इससे पहले थोड़ी सी लौकिक कविताएँ कसीदे और मर्सिए के रूप में प्राप्त थीं। पिछले सौ वर्षों से काव्य में सांप्रदायिकता और संकीर्णता बढ़ती गई – हिंदू मुसलिम विचारधाराओं को समन्वित करने की बात नहीं रही। साहित्यिक भाईचारा नहीं रहा। अब तो सिंध पाकिस्तान का एक भाग हो गया है।

आरम्भिक काल

सिंधी के कुछ पुराने दोहे अरबी फारसी इतिहास ग्रंथों में मिल जाते हैं, किंतु सिंधी की प्रथम कृति दोदे चनेसर (रचनाकाल 1312 ई.) मानी जाती है। उपलब्ध वीर प्रबंध काव्य खंडित और अपूर्ण अवस्था में है। दोदा और चनेसर दो भाई थे जिनमें भूनगर के सिंहासन के लिए युद्ध हो गया। इस युद्ध में सिंध के सब कबीले और सरदार सम्मिलित हुए। तत्कालीन सिंधियों के रीति-रिवाज, कबायली संगठन और अन्य आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों का इस किस्से से परिचय मिल जाता है। छंद दोहा है। 14वीं शती के अंत में शेख हमाद बिन रशीदुद्दीन जमाली और शेख इसहाक आहनगर नाम के दो सूफी कवियों के कुछ फुटकर पद्य मिलते हैं। 15वीं शती के अंत में मामुई (ठठ के निकट एक संस्थान) के सूफी दरवेशों के सात पद्य उपलब्ध होते हैं जिनमें सिंध पर आने वाली विपत्ति की भविष्यवाणी की गई है। 16वीं शती के दोहाकारों में मखदूम अहमद भट्टी, काजी काजन (मृत्यु 1551 ईं.), मखदूम नूह हालाकंडी और शाह अब्दुल करीम (1538-1623 ई.) के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सब सूफी फकीर थे अहमद के मुक्तकों में लौकिक प्रेम की तीव्रता है। काजन प्रेमोन्मत कवि थे। इनका कहना है कि प्रिय के दर्शन के बिना गुणगण (पवित्रता, सौंदर्य और विद्वता आदि) सब व्यर्थ हैं। बाह्य गुण हमें नरक में खींच ले जा सकते हैं, किंतु प्रेम में एक दिव्य शक्ति है। इनके दोहों की भाषा अधिक परिष्कृत और प्रांजल है। नूह के दोहों में विरह की गहराई और कल्पना की ऊँचाई है। शाह करीम के 94 दोहे प्राप्त हैं। इन प्रेम साधना, तपश्चर्या और आत्मसमर्पण पर बल दिया गया है-“मात्र इच्छा और कामना से प्रेम की प्राप्ति नहीं हो जाती और न ही प्रार्थनाएँ काम देती हैं जब तक कि काली रातों को जागृत जागकर आँखो से खून की नदियाँ न बहाई जाएँ” 17वीं शताब्दी के एक सूफी कवि उस्मान एहसानी का “वतननामा” (1646 ई.) उपलब्ध है। आप इस जगत को अपना देश नहीं मानते-यह तो रैन बसेरा है। अपना देश वही है जहाँ से हम आए हैं और जहाँ चले जाना है। इस जगत के अस्थायी घरौंदे से जी न लगा। उठ यात्रा की तैयारी कर, तुझे इस पड़ाव में नहीं पड़े रहना है।

स्वर्ण युग

18वीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिंधी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाता है। इस समय शाह इनायत, शाह लतीफ, मखदूम मुहम्मद जमान मखदूरा अब्दुल हसन, पीर मुहम्मद बका आदि बड़े-बड़े कवि हुए हैं। ये सब के सब सूफी थे। इन लोगों ने सिंधी काव्य में नए छंदों, नई विधाओं और गंभीर दार्शनिक विचारों का प्रवर्तन किया। सिंधी मसनवियों और काफियों के रूप में तसव्वुक का भारतीयकरण यहीं से आरंभ होता है। शाह इनायत ने “उम्र मारूई”, “मोमल मेंघर” “लीला चनेसर” तथा “जाम तमाची और नूरी” नाम के किस्सों के अतिरिक्त मुक्तक दोहे और “सुर” लिखे। इनका प्रकृति वर्णन विशद और कलापूर्ण है और इनके उपमान मौलिक और अनूठे हैं। शाह लतीफ (1689-1752 ई.) सिंधी के सबसे बड़े और लोकप्रिय कवि माने गए हैं। इन्होंने नए विचार, नए विषय, नई कल्पनाएँ और नई शैलियाँ देकर सिंधी भाषा और साहित्य को समुन्नत किया। इनका “रिसालो” सिंधी की मूल्यवान निधि हैं। इसमें प्रबंधात्मक कथाएँ भी हैं, मुक्तक कविताएँ भी; इति वृतात्मक और वर्णनात्मक छंद भी हैं और भावपूर्ण गीत भी; प्रेम की कोमल कांत अभिव्यक्ति भी है और युद्ध का यथातथ्य चित्रण भी; हिंदू वेदांत भी है, इस्लामी तसव्वुक भी। इसमें प्रभु शक्ति के साथ देशभक्ति भी है। कवि को प्रकृति के सुंदर-असुंदर सभी पक्षों से प्यार है; साथ ही वे मानव से गहरी सहानुभूति रखते हैं। कहानियों का रूप लौकिक है, किंतु अर्थ में आध्यात्मिक अभिव्यंजना है। वे प्रमुखत: रहस्यवादी कवि हैं। खाजा मुहम्मद ज़मान बड़े विद्वान कवि थे। उनके 84 दोहे प्राप्त हैं जिनमें अपने “सज्जन” के प्रति अनन्य भक्ति और आत्म विस्मृति के भाव प्रकट हुए हैं। मियाँ अबुल हसन के काव्य में इस्लामी सिद्धांतों की व्याख्या हुई है। बका के विरह गीत प्रभावपूर्ण, काव्यात्मक और रससिक्त हैं। उत्तरार्ध के कवियों में शाह इनायत के शिष्य रोहल फकीर (मृत्यु सन् 1782) प्रसिद्ध हैं। इनके चार बेटे भी कवि थे।

टालपुरी शीया नवाबों के राज्यकाल (सन् 1783 से 1843) में सिंधी साहित्य ने एक नया मोड़ लिया। पिछले युग में प्रेम कथाओं के खंड का प्रस्तुत हुआ था, अब पूरी दास्तानें लिखी जाने लगीं।

दोहा का प्राधान्य कम हुआ, काफियाँ, कसीदे और मर्सिए अधिक संख्या में लिखे जाने लगे। गजलों का प्रारंभ हुआ। गद्य का रूप भी स्पष्ट होने लगा। इस युग के सबसे प्रसिद्ध कवि सचल उपनाम “सपमस्त” (1739-1826) थे जिन्हें सूफी संतों में बड़े आदर के साथ स्मरण किया जाता है। उनकी सी मधुर गीतियाँ और रसीली काफियाँ बहुत कम कवियों ने लिखी हैं। वे प्रेमी भक्त के लिए ब्राह्माचार और लोकाचार ही को नहीं, ज्ञान और कर्मकांड को भी व्यर्थ समझते हैं। हफीज़ का “मोमल राना” और हाजी अब्दुल्लाह का “लैला मजनूँ” उल्लेखनीय किस्से हैं। साबित अली शाह के मर्सिए आज भी मुहर्रम के दिनों में गाए जाते हैं। हिंदू कवियों में दीवान दलपत राय (मृत्यु 1841) और सामी (1743-1850) जिनका पूरा नाम भाई चैन राय था, वेदांती कवि थे। इस युग के अन्य कवियों में साहबडना, अली गौहर, आरिफ़, करम उल्लाह, फतह मुहम्मद और नबी बख्श के नाम उल्लेखनीय हैं।

अंग्रेजी राज्यकाल

अंग्रेजी राज्यकाल (1843 से 1947 ई.) में सिंधी में काव्य तो बहुत लिखा गया है, किंतु उसका स्तर ऊँचा नहीं है। सिंधी जनता से उसका संबंध विच्छिन्न सा हो गया है और वह उर्दू फारसी कल्पनाओं, आख्यानों, भावों, विधाओं, रूपों और उपमानों को सिंधी वेश में लाने में प्रवृत्त हो गया। काव्य में स्वच्छंदता तो है और विषयों की विविधता भी, किंतु मौलिकता बहुत कम है। इस पर पश्चिमी प्रभाव भी पड़ा है। इधर जो सिंधी में काव्य रचना देश के बँटवारे के बाद भारत में हुई है उस पर हिंदी और बंगला का प्रभाव भी स्पष्ट है। पुराने ढंग की कविता करने वालों में सूफी कवि कादर बख्श बेदिल (1814-1873 ई.) ने किस्से और काफी, बाई, बैत और सुर आदि मुक्तक लिखे और हमल फकीर लगारी (1815-1879 ई.) ने सिराइकी और विचोली में प्रेममार्गी काव्य की रचना की। लगारी का हीर राँझे का किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। ये पंजाब के रहने वाले थे, खैरपुर में आकर बस गए थे। इन्होंने दोहे भी लिखे। शाह लतीफ के बाद इनका स्थान निश्चित किया जाता है। सैयद महमूद शाह की काफियाँ छंदों और आदर्शों को अपनाया और सिंधी में लैला मजनूँ, यूसुफ जुलैखा, शीरीं फरहाद की कथाएँ लिखीं। नूर मोहम्मद और मोहम्मद हाशिम ने “हिजो” (निंदात्मक कविताएँ) लिखीं और कलीच बेग और अबदुल हुसैन ने कसीदे (प्रशस्तियाँ) लिखे। कलीच बेग (मृत्यु 1929) ने उमरखय्याम का अनुवाद सिंधी पद्य में किया। नवाब मीर हसन अली खाँ (1824-1909) ने फिरदौसी के “शाहनामा” की नकल पर “शाहनामा सिंध” की रचना की। उन्होंने गजलें, सलाम और कसीदे भी लिखे। इनके अतिरिक्त सांगी, खाकी (लीलाराम सिंह), बेकस (बेदिल के पुत्र), जीवत सिंह और मुराद के नाम उल्लेखनीय हैं। पश्चिमी साहित्य से प्रभावित होकर लिखने वालों में डेवनदास, दयाराम, गिडूमल, नारायण श्याम, मंघाराम मलकाणी तथा टी.एल. वसवाणी उल्लेखनीय हैं। मौलिक ढंग से कविता करने वालों में कुछ नाम गिनाए जा सकते हैं। शम्मुद्दीन बुलबुल का सिंधी काव्य में वहीं स्थान है जो उर्दू में अकबर इलाहाबादी का। नई सभ्यता पर इनके व्यंग्य भी सुधारात्मक वृत्ति से लिखे गए हैं। इन्होंने गजलें भी लिखीं। करुण रस गुलाम शाह की कविता में भरा पड़ा है। इन्हें “आँसुओं का बादशाह” कहा जाता है। हैदरबख्श जतोई की कविता में देशभक्ति ओतप्रोत है। सिंधु नदी के प्रति उनकी कविता बहुत प्रसिद्ध हुई है। लेखराज अजील प्रकृति के चित्रकार हैं। मास्टर किशनचंद बेबस (मृत्यु 1947) अत्यंत स्वाभाविक भाषा में लिखते रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह-शीरीं शीर और गंगाजूँ लहरू-प्रकाशित हैं। इनके शिष्यों में हरि दिलगीर (“कोड” के लेखक), हूँदराज दुखायल (“संगीत, पूल” के कवि), राम पंजवाणी तथा गोविंद भटिया आज प्रगतिशील कवियों में गिने जाते हैं। जीवित कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध शेख अय्याज हैं जिनके गीत “बागी” नाम के संग्रह में प्रकाशित हुए हैं।

गद्य एवं नाटक

सन् 1902 के पहले का कोई नाटक उपलब्ध नहीं है। तब से शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद अथवा रामायण और महाभारत की किन्हीं घटनाओं के आधार पर लिखे गए नाटक मिलने लगते हैं। शाह (लतीफ) की कविता के आधार पर लालचंद अमरडिनूमल का लिखा हुआ “उम्र मारुई” सबसे पहला सफल नाटक माना जाता है। कवि कलीच बेग का “खुरशीद” नाटक (1870) पठनीय है। उसाणी का “बदनसीब थरी” एक प्रहसन है। लीलराम सिंह के नाटक अपनी भाषा और शिल्प शैली की दृष्टि से बहुत सुंदर हैं। दयाराम गिडूमल का “सत्त सहेल्यूँ” और राम पंजवाणी का “मूमल राणो” अभिनेय नाटक हैं। वर्तमान समय में सबसे प्रसिद्ध नाटककार मंघाराम मलकाणी हैं जिन्होंने कई सामाजिक नाटक और एकांकी लिखे हैं। आप निबंधकार और कवि भी हैं।

अधिकतर गद्य साहित्य अनुवाद रूप में प्राप्त हैं। मौलिक लेखकों में मिर्जा कलीच बेग और कौडोमत चंदनमल (मृत्यु 1916) गद्य के प्रवत्र्तकों में गिने जाते हैं। मिर्जा ने लगभग 200 पुस्तकें लिखी हैं। उनका “जीनत” (1890) सिंधी का पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें सिंधी जीवन का यथातथ्य चित्रण मिलता है। प्रीतमदास कृत “अजीब भेंट,” आसानंद कृत “शायर”, भोजराजकृत “दादा श्याम” (आत्मकथा की शैली में) और नारायण भंभाणी का “विधवा” उल्लेखनीय हैं। परमानंद मेवाराम अपनी रसीली और यथार्थवादी कहानियों, निर्मलदास फतहचंद और जेठमल परसराम प्रगतिवादी कहानियों तथा भेरूमल मेहरचंद जासूसी कहानियों के कारण विख्यात हैं। वर्तमान समय में सुंदरी उत्तमचंदानी और आनंद गोलवाणी अच्छे कहानी-लेखक माने जाते हैं। परमानंद मेवाराम निबंधकार भी हैं। लुत्फउल्लाह कुरैशी, लालचंद अमरडिनूमल, नारायणदास मलकाणी, केवलराम सलामतराय अडवाणी और परसराम की गिनती सिंधी के आधुनिक शैलीकारों में की जाती है।

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